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शनिवार, 22 अगस्त 2009

मेरी कविता सो रही है

उसे ग़जलें लिखना पसंद है
या तस्वीरें खिंचाना
उसकी तस्वीर उसकी ग़जल जैसी है और उसकी ग़जल उसकी तस्वीर जैसी
जैसे मुझे भी बार बार उसके जैसा ही बन जाना पड़ता है
वो बात करते करते अचानक मौन हो सकती है
जैसे थक हार कर इस वक़्त
मेरी कविता सो रही है
या फिर उसकी चुप्पी अचानक ठहाकों का बोझ ओढ़ सकती है
जैसे मैं ओढ़ रहा हूँ अपने चेहरे पर चेहरों को
वो मेरे सामने जंगल बन जाती है
ढेर सारे पेड़ उग आते हैं /उसके भीतर
जहाँ मैं उसे खोजता हुआ अक्सर खो जाता हूँ
खुद को जिन्दा रखने की ये तरकीब उसने अभी अभी सीखी है
वो हर कोई जो मुझसे प्यार का दावा करता है
के लिए
उसका होना एक पहेली है
और उसका पहेली होना ढेर सारे सवाल
वो तुम्हारी जुड़वाँ कैसे है ,क्यूँ ?
क्यूँ खोते हो जंगल में ?
कब से जानते हो उसे ?
कैसे गिने तुमने कितने हैं पेड़ ?
वगैरह ,वगैरह
इस बार मानसून ने फिर धोखा दिया
जंगलों में सिर्फ पेड़ बचे ,पत्ते नहीं
मैं इस वक़्त एक बार फिर उन नंगे पेडों के नीचे
सोने की कोशिश कर रहा हूँ
मेरे पसीने की कुछ बूंदें
जमीन के सीने से चिपक गयी हैं
वो रात के दूसरे पहर में एक बार फिर कोई नयी ग़जल लिख रही है