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रविवार, 2 जनवरी 2011

फासलों के बीच


मेरे और उसके बीच
एक नंबर का ही फासला था
जो उसने ड्राइंग रूम के कैलेंडर में लिख रखा था
ढेर सारी जरुरी-गैर जरुरी/ तारीखों के बीच
मगर वो फासला ख़त्म न हो पाया
जैसे कभी ख़त्म नहीं होती/ शहर की भीड़
या फिर पहाड़ के उस पार का सन्नाटा
जहाँ आजकल मै/ अकेले चौपाल लगाता हूँ

ये फिर न हुआ कि
मेरे फोन की घंटी बजे और मुझसे ज्यादा वो खुद ही खुद को सुनते हुए कहे
"काहें बिना बात नाराज होते हो ?
मै ऐसी ही हूँ"
ये भी न हुआ कि वो लिखे कोई कविता
और चौराहे पर यूँ सजा आये
कि मेरी निगाह उसे पढ़े
और मै ही दौड़कर उसे कसकर थाम लूँ|
उसने कोई ख़त भी न लिखे
वो ख़त /जिनमे उसका अंकगणितीय ज्ञान साफ़ नजर आता था
मै आधी तुम्हारी हूँ /और आधी सारी दुनिया की
मैं तुमसे/ तुम्हारी पूरी दुनिया के बारे में न पूछूंगी
तुम मेरी आधी दुनिया से दूर रहो|

कहते हैं कि
वो उस एक रात जो कि
शायद किसी साल की पहली तारीख थी
अंधेरों से मुंह बचाकर
उजालों की बस्ती में चली गयी
उस बस्ती में/ जहाँ उसके बचपन का वो साथी था
जिसने उसे गीत और घर दोनों दिए थे
"हमें तुमसे प्यार कितना "

उसके पास फासलों को बनाये रखने की जिद्द थी
मेरे पास अंधेरों के बावजूद
दूरियों को सहने की /एक आखिरी कोशिश
मुमकिन है/ उसकी जिद्द और मेरी कोशिशें कामयाब हो जाएँ
ये भी मुमकिन है/ वक्त साजिशन इन फासलों के बीच
किसी मोटी दीवार की चुनाई कर दे |
ये भी हो सकता है
वो मेरी कविताओं के पन्नों पर
एक बार फिर
सारी दवात उड़ेल डाले
और कहे /तुम मुझे गूंगे ही अच्छे लगते हो/
तुम्हारी कविताओं के शब्द जब मेरे इर्द गिर्द होते हैं/
तो मुझे घुटन होती है/
ये घुटन उस वक्त भी हुई थी जब
तुमने मुझे पहली बार पिघलाया था
और मै बिलख पड़ी थी,
तुम उन शब्दों को
उन दरवाजों के पीछे रख दो
जिन को मैंने न जाने क्यूँ /उस एक दिन अचानक खोल दिया था ?
और उनके पीछे तुम बैठे थे
कुरूप-
घुटनों में सर छुपाये हुए
और मै न चाहते हुए भी
तुमसे वाष्पीकरण की प्रक्रिया समझ रही थी |
इन फासलों के बीच जो भी हो
एक चीज तय है/
बहुत कुछ उस एक जगह ठहरा हुआ रहेगा/
जहाँ वो पहले था
तकते हुए/
हमें और तुम्हे/
कि हम आयेंगे ,उन फासलों को तोड़
और उन्हें फिर से साथ लेकर चलेंगे
मगर हम जानते हैं ,तुम आगे बढ़ चुके हो
उन ठहरी हुई चीजों के आगे/
फासलों को फासला बनाये रखने की आदत
तुमने अभी अभी सीखी है
और हाँ- ये आदमी को गैरतमंद बनाये रखने के लिए जरुरी है|

8 टिप्‍पणियां:

ashish ने कहा…

"और हाँ ये फासले आदमी को गैरतमंद बनाये रखने के लिए जरुरी होते है ." इस शब्दों ने कविता का निचोड़ रख दिया आवेश भाई . सुबह सुबह सुन्दर और भावपूर्ण कविता पढ़ के दिन बन गया. ऐसी ही लिखते रहिये कविता, क्या पता आपके शब्द उनके लिए घुटन ना बनकर अमृत वाणी बन जाए . आभार इस सुन्दर रचना के लिए .

Priti Krishna ने कहा…

महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्‍वविद्यालय, वर्धा के ब्लॉग हिन्दी विश्‍व पर राजकिशोर के ३१ डिसेंबर के 'एक सार्थक दिन' शीर्षक के एक पोस्ट से ऐसा लगता है कि प्रीति सागर की छीनाल सस्कृति के तहत दलाली का ठेका राजकिशोर ने ही ले लिया है !बहुत ही स्तरहीन , घटिया और बाजारू स्तर की पोस्ट की भाषा देखिए ..."पुरुष और स्त्रियाँ खूब सज-धज कर आए थे- मानो यहां स्वयंवर प्रतियोगिता होने वाली ..."यह किसी अंतरराष्ट्रीय स्तर के विश्‍वविद्यालय के औपचारिक कार्यक्रम की रिपोर्टिंग ना होकर किसी छीनाल संस्कृति के तहत चलाए जाने वाले कोठे की भाषा लगती है ! क्या राजकिशोर की माँ भी जब सज कर किसी कार्यक्रम में जाती हैं तो किसी स्वयंवर के लिए राजकिशोर का कोई नया बाप खोजने के लिए जाती हैं !

ranjana ने कहा…

तारीखें, फासले, अँधेरे, उजाले
ये सब हैं सदा से समय के हवाले
समय जो भी दे उसको हंस कर निभाओ
हो मीठे, हो खारे, या कडवे निवाले.

दीपक 'मशाल' ने कहा…

कहीं आपकी टिप्पणी देख लगा कि ये बंदा हमख्याल सा है.. बस फिर यहाँ चला आया आपका मित्र बनने, और देखिये ना कि एक बढ़िया कविता मिली इनाम में पढ़ने को. :)

Himanshu Pandey ने कहा…

पिछली, और पिछली, और पिछली...और अब यह ! ढेर सारी कवितायेँ पढ़ गया एक साथ...वो भी इतनी सुबह.
बहुत दिनों से इन्हें रीडर में सजाये रखा था.
बेहतरीन कवितायें ! बहुत आभार !

श्याम जुनेजा ने कहा…

बहुत शानदार उठान लेती हुई आपकी यह रचना छू गई है भीतर तक..फासलों में बुनी गई शहर की अंतहीन भीड़ और पहाड का कभी न खत्म होने वाला सन्नाटा... भावुकता की अपेक्षाएं "एक बार फिर..सारी दवात उड़ेल डाले..और कहे /तुम मुझे गूंगे ही अच्छे लगते हो/" वाह !
लेकिन प्रीति कृष्णा की टिपण्णी का संदर्भ समझ में नहीं आया बड़ी क्रूर किस्म की टिपण्णी लगी कौन है यह राजकिशोर और उनका आपकी इस रचना से क्या लेना देना

बेनामी ने कहा…

प्रशंसनीय प्रस्तुति - उच्च स्तरीय रचना - आवेश जी हार्दिक बधाई

अनूप शुक्ल ने कहा…

बहुत खूब! शब्द नहीं हैं तारीफ़ करने के लिये। बहाना भी मिल गया कविता में- गूंगे अच्छे लगते हो। :)

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