शनिवार, 7 मई 2011
चुप्पियों के साथ
चुप्पियों के साथ
आस- पास तुम्हारी मौजूदगी
मुझे बेहद अच्छी लगती है
कुछ भी कह पाने की मुश्किलें जितनी बढती है
उतने ही करीब आ जाते हो तुम
अब तो तुम भी जान गए हो
ज्यों - ज्यों शब्द, सलीकों के साथ बीच में आते हैं
तुम्हे उतना ही खोता चला जाता हूँ मैं
खुद को उतना ही अकेला पाता हूँ मैं
मगर ये भी सच है कि
चुप्पियों के साथ
तुमसे थोड़ी सी भी दूरी मुझे बेहद कठिन लगती है
कितना मुश्किल होता है
दूरियों को चुपचाप सहना
समय के साथ-साथ न चाहते हुए भी बहना
उस वक्त बहुत मुमकिन है मैं उन बातों पर भी उदास होऊं
या फिर नाराज हो जाऊं
जिन बातों पर मै अक्सर मुस्कुराता हूँ
उस एक वक्त /तुम्हारी कविता भी बेवफाई की एक किस्म लगती है
तस्वीरों में मुस्कुराती तुम
पार्क स्ट्रीट की लोपा बनर्जी जैसी लगती हो
जिसके लिए प्यार और गोलगप्पों में कोई ख़ास अंतर नहीं है
सच कहूँ तो मैं उन सारी तस्वीरों पर स्याही उडेलना चाहता हूँ
और चाहता हूँ/ तुम्हे यूँ मुस्कुराता देखने वाले सारे लोग नरक में जाएँ
इन दूरियों के बीच तुम्हारी जिद्द
मुझे साजिश सी लगती है
तुम्हे याद है न? ये वही जिद्द है
जिनके लिए मैं न चाहते हुए भी तुम्हे ठहाके लगा कर दिखाता था
अब मै ठहाके नहीं लगाता
अपनी फटी हुई जेब को टटोलता हूँ
या फिर खुद को श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूँ
जानता हूँ इस बार
चुप्पियों के बीच
देह का द्वन्द भी नंगा हो रहा है
तुम इस बार मेरी नियत को आंक रहे हो
बार -बार जो मुझमे कभी नहीं था
उसको झाँक रहे हो
मगर मैं ,फिर भी दूरियों को सह रहा हूँ
क्यूंकि
चुप्पियों के साथ
आस- पास तुम्हारी मौजूदगी
मुझे बेहद अच्छी लगती है
सदस्यता लें
संदेश (Atom)