शनिवार, 11 जून 2011
गुरुवार, 2 जून 2011
सुनो श्वेताम्बरा,अब मैं टूट रहा हूँ
सुनो श्वेताम्बरा
अब मैं टूट रहा हूँ
स्मृतियों के चादर के गुलाबी रंग पर
इस मौसम के पीले पत्ते भारी पड़े हैं
थके हारे जिस्म में उत्तर चुकी आँखें
अब हथेलियों को नहीं आसमान को तकती है
कविता की जुगाली के लिए
अंगुलियाँ शब्दों को चबाती है|
कहो श्वेताम्बरा क्यूँ कर
तुमने बेंच दिए थे घर के सारे आईने
और अपने कमरे में लगा लिए थे गुलमोहर के फूल?
तुम्हे नहीं मालूम
तुम्हारे भेजे गए बादल मेरे आँगन में बरसते हैं
ये सूरज मुझे कर्जदार समझता है
और जमीन किराया मांगती है
बोलों श्वेताम्बरा
क्यूँकर बदल रही है तुम्हारी रंगत ?
तुम क्यूँकर रंगतराश नहीं हुई ?
मैं भी तुम्हारे उन रंगों में रंगता
जिनका विज्ञान सिर्फ तुम्हे पता है
कभी ज्यादा सा लाल ,कभी कम सा हरा
सुनो
मैंने तुम्हारे उन रंगों को भी देखा है
जो तुमने मुझसे छुपाये है !
ये मेरी चोरी नहीं बेरंग सी कुंठाएं हैं
तुम इनके लिए मुझे सजा न दो
तुम्हारी सपनों का रंग /
तुम्हारी हँसी का रंग
तुम्हारी धडकनों का रंग
और हाँ ,तुम्हारी ग़जलों का रंग भी मैं देख सकता हूँ |
सुनो श्वेताम्बरा
अब मैं भी लौट रहा हूँ
सारे सिरे साथ लेकर
जानता हूँ-
इन सिरों को ढूढने की कोशिश तुम नहीं करोगे
मगर
लौटते हुए क़दमों की आहट को तो सुनो
दो तलवों भर की खाली जगह भी
कभी -कभी उम्र भर की खेती के काम आती है
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