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रविवार, 31 जुलाई 2011

हाँ तुम नहीं हो ,कहीं नहीं हो

अब तुम नहीं हो
तुम्हारे शब्द भी नहीं हैं ,तुम्हारी आहट भी नहीं
एक चुप्पी है
जो वो कुछ कह रही है जो तुम्हारी मौजूदगी कहती
तुम कह सकती थी इस बार बादल कुछ ज्यादा बरसे हैं
जंगल हरे रहेंगे
तुम बातें कर सकती थी उन गरम पहाड़ों के बारे में
जिन्हें तुमने अक्सर ख्वाबों में देखा है
और तुम्हे यकीं है कि ये पहाड़ बादलों की तरह तुम्हे भी बुलाते हैं
तुम सड़कों की सरगोशी और शहर की मदहोशी पर भी
कुछ न कुछ कहती
तुम्हे न जाने क्यूँ लगता है कि उनका ये हाल
हमारी मुलाकातों के बाद हुआ है |
तुम्हारी बतकही में मेरी कमीज के रंग और वो नज्में भी शामिल होती
जिनमे अक्सर मैं अनायास ही ख़ुद को ढूंढ़ता हूँ
बहुत मुमकिन है
उस एक वक्त मैं हमेशा की तरह आस्मां को तकता रहता
तुम्हारी निगाहें हमेशा की तरह जमीन पर गडी होती
तुम अपने छत से नजर आने वाली गंगा की बात जरुर कहती
और उसकी इस लापरवाही पर हंस पड़ती कि
उसने मेरे घर की देहरी से तुम्हारे शहर तक उस बोतल को पहुंचाने में एक सदी लगा दी
जिसमे मैंने तुम्हारे नाम का एक कागज़ रख छोड़ा था
तुम प्यार के उन तमाम किस्मों पर भी जरुर बातें करती
जिन्हें तुमने
दहलीजों को तहजीब सिखाने के दौरान जाना
और मैं नावाकिफ रहा
तुम उन सभी चीजों पर भी जरुर कुछ न कुछ कहती
जिन्हें आधा -आधा बांटते हुए हम ख़ुद बँट गए
तुम शायद उस दर्द को न कहती
जिन्हें हम तब जान पाते हैं
जब किसी के होने और किसी के न होने का अंतर
ख़त्म हो जाता है
यकीं मानो ये चुप्पी उस दर्द को सहती है
फिर कहती है
हाँ ,तुम नहीं हो ,कहीं नहीं हो

सोमवार, 25 जुलाई 2011

सुनो श्वेताम्बरा


सुनो श्वेताम्बरा
किस्से सुनाते सुनाते शहर सो गया है
बादलों के शामियाने में
बूंदों की बैचैनी बहुत कुछ ले जाती है
बहुत कुछ कह जाती है
कविता अकेले कोने में आधी भीगी - आधी सूखी
छाता लगाये खड़ी है
कलम सिरहाने / अपने स्मृति -भ्रंश पर
सफाई देते -देते थक चुकी है
इस वक्त छत, सिनेमा का पर्दा है
और आँखें प्रोजेक्टर
वो सब कुछ जो तुमने कहे और जो तुमने न कहे
एक साथ मुझसे रेजोनेंस कर रहे
मैं चाहता हूँ कि तुम इस सोये हुए शहर को जगाओ
आओ मुझे फिर से लोरियां सुनाओ
या कोई गीत गाओ
ये भी न हो सके तो शहर के लिए ही सही
लड़ो ,झगड़ो और लौट जाओ