
शहर की लड़की के लिए कविता नहीं होती
कहकहे होते हैं
जिसे वो अपने लोगों के साथ तब बांटती है
जब शहर से दूर खड़ा कोई ,शहर में आ जाता है
उसके घर की खिड़कियाँ अक्सर बंद होती हैं
कम रोशनी में उसे अपना चेहरा
ज्यादा खुबसूरत लगता है
और वो बच जाती है ,अनचाहे चेहरों को देखने से |
उसकी घडी की सुई औरों की घडी से
पांच घंटे पीछे होती है
तो उसकी रात औरों की सुबह के साथ होती है
चेहरे से अँधेरे की परत हटाने को
वो बाथरूम में देर तक नहाती है
तो बात करते करते अचानक ख़ामोश हो जाती है
शहर की लड़की के सेलफोन की घंटी और दरवाजे की चिटकनी का
सीधा नाता होता है
उसके लिए प्यार ४,२५ की ट्रेन की तरह है
जिस पर वो कभी नहीं चढ़ी ,
लेकिन
जिससे उतरने वाली भीड़ उसे पसंद है
फिर कभी किसी रोज किसी वक़्त
भीड़ में से किसी एक का हाँथ थाम
वो शहर को जिन्दा रखने निकल पड़ती है
कविता कविता रहती है ,कहकहे कहकहे रहते हैं