गुरुवार, 25 फ़रवरी 2010
शहर की लड़की
शहर की लड़की के लिए कविता नहीं होती
कहकहे होते हैं
जिसे वो अपने लोगों के साथ तब बांटती है
जब शहर से दूर खड़ा कोई ,शहर में आ जाता है
उसके घर की खिड़कियाँ अक्सर बंद होती हैं
कम रोशनी में उसे अपना चेहरा
ज्यादा खुबसूरत लगता है
और वो बच जाती है ,अनचाहे चेहरों को देखने से |
उसकी घडी की सुई औरों की घडी से
पांच घंटे पीछे होती है
तो उसकी रात औरों की सुबह के साथ होती है
चेहरे से अँधेरे की परत हटाने को
वो बाथरूम में देर तक नहाती है
तो बात करते करते अचानक ख़ामोश हो जाती है
शहर की लड़की के सेलफोन की घंटी और दरवाजे की चिटकनी का
सीधा नाता होता है
उसके लिए प्यार ४,२५ की ट्रेन की तरह है
जिस पर वो कभी नहीं चढ़ी ,
लेकिन
जिससे उतरने वाली भीड़ उसे पसंद है
फिर कभी किसी रोज किसी वक़्त
भीड़ में से किसी एक का हाँथ थाम
वो शहर को जिन्दा रखने निकल पड़ती है
कविता कविता रहती है ,कहकहे कहकहे रहते हैं
शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010
आग,पानी और कविता
क्यूँ लिखूं में कोई कविता या कोई गीत ?
चलो मै आग लिखता हूँ मेरे दोस्त
तुम जलावन बटोरो
बहुत दिनों से नहीं सुलगी ये अंगीठी
बहुत दिनों से नहीं महसूस की हमने आंच
बहुत दिन हुए हथेलियों को घुटनों में छिपाए
बहुत दिन से किसी ने माथे को नहीं चूमा
वो एक राख जो तुममे सुलग रही है
मुझ तक पहुंचकर धधक जाती है
अगर तुम कहो तो मै पानी भी लिख सकता हूँ
तुम अपनी नजरें बटोरो
बहुत दिनों से तुमने तकिये के लिहाफ नहीं धोये
बहुत दिनों से अपने घर को नहीं बुहारा
बहुत दिन हुए तुम्हारे दरवाजे के खुलने का
लम्बा इन्तजार किये हुए
बहुत दिन से तुमने अचानक बातों के बीच उठकर
चाय नहीं बनायीं
वो पानी जो तुम्हारे भीतर घुल रहा है
मुझ तक पहुंचकर स्याही बन जाता है
आग और पानी दोनों की तुम्हे भी जरुरत है
मुझे भी
कविता के न होने की यही शर्त है
सदस्यता लें
संदेश (Atom)