शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010
आग,पानी और कविता
क्यूँ लिखूं में कोई कविता या कोई गीत ?
चलो मै आग लिखता हूँ मेरे दोस्त
तुम जलावन बटोरो
बहुत दिनों से नहीं सुलगी ये अंगीठी
बहुत दिनों से नहीं महसूस की हमने आंच
बहुत दिन हुए हथेलियों को घुटनों में छिपाए
बहुत दिन से किसी ने माथे को नहीं चूमा
वो एक राख जो तुममे सुलग रही है
मुझ तक पहुंचकर धधक जाती है
अगर तुम कहो तो मै पानी भी लिख सकता हूँ
तुम अपनी नजरें बटोरो
बहुत दिनों से तुमने तकिये के लिहाफ नहीं धोये
बहुत दिनों से अपने घर को नहीं बुहारा
बहुत दिन हुए तुम्हारे दरवाजे के खुलने का
लम्बा इन्तजार किये हुए
बहुत दिन से तुमने अचानक बातों के बीच उठकर
चाय नहीं बनायीं
वो पानी जो तुम्हारे भीतर घुल रहा है
मुझ तक पहुंचकर स्याही बन जाता है
आग और पानी दोनों की तुम्हे भी जरुरत है
मुझे भी
कविता के न होने की यही शर्त है
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8 टिप्पणियां:
तुम जलावन बटोरो
बहुत दिनों से नहीं सुलगी ये अंगीठी
बहुत दिनों से नहीं महसूस की हमने आंच
बहुत दिनों हुए हथेलियों को घुटनों में छिपाए
बहुत दिन से किसी ने माथे को नहीं चूमा
वो एक राख जो तुममे सुलग रही है
मुझ तक पहुंचकर धधक जाती है
आवेश जी ! आपके तो शब्द पढ़कर ही बस निशब्द हो जाती हूँ मैं....कहाँ से लेकर आते हैं ऐसा संयोजन....? हर बार की तरह दिल की तह तक जाती हुई पंक्तियाँ...निः संदेह अति सुन्दर.
बहुत दिन से तुमने अचानक बातों के बीच उठकर
चाय नहीं बनायीं
वो पानी जो तुम्हारे भीतर घुल रहा है
मुझ तक पहुंचकर स्याही बन जाता है
आग और पानी दोनों की तुम्हे भी जरुरत है
मुझे भी
avesh ji bahut sunder rachna !
आवेश जी,
आपकी कविता मन की अतल गहराइयों से निकल कर सभी के मनोभाव को शब्द दे देती है| बहुत सहजता से बेहद गहरी अभिव्यक्ति, अचंभित हो जाती हूँ सदा आपको पढ़कर| ...
वो एक राख जो तुममे सुलग रही है
मुझ तक पहुंचकर धधक जाती है
वो पानी जो तुम्हारे भीतर घुल रहा है
मुझ तक पहुंचकर स्याही बन जाता है
सुन्दर और उत्कृष्ट रचना केलिए बहुत बधाई|
अद्भुत रचना...बहुत गजब!!
'' ....वो पानी जो तुम्हारे भीतर घुल रहा है
मुझ तक पहुंचकर स्याही बन जाता है
आग और पानी दोनों की तुम्हे भी जरुरत है
मुझे भी
कविता के न होने की यही शर्त है ........''
--- यहाँ का प्रभाव तो अकथनीय है ..
सुन्दर ! आभार !
aawesh jee... kuchh kahna padega kya? kyonki main to mantra-mugdh hun... nihshabd...
"वो एक राख जो तुममे सुलग रही है
मुझ तक पहुंचकर धधक जाती है
वो पानी जो तुम्हारे भीतर घुल रहा है
मुझ तक पहुंचकर स्याही बन जाता है"
आग और पानी के सहयोग से पिरोई गयी भावनाओं की माला बहत मर्म को छू गयी . अलग प्रकार की रचना के लिए धन्यवाद् .
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ।
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