शनिवार, 25 दिसंबर 2010
हम एक बार फिर मिले
हम एक बार फिर मिले
जैसे कोई शहर,किसी मुसाफिर से मिलता है
जैसे ओस की बूँद पत्तों से मिलती है
या फिर कोई सुर्ख शाम ,काली अँधेरी रात से
तुम्हारे साथ बदला हुआ मौसम था
कभी चटकीला हरा /कभी गुलाबी
मेरे साथ तेज धूप थी
जो तुमने मुझसे बिना पूछे एक दिन अचानक
मेरे झोले में डाल दी थी
जिसे सहेजने में मै खुद भी झुलस रहा था |
तुम इस बार भी ग़जल की एक पूरी किताब थी
मुकम्मल
हाँ ,कुछ हर्फ़ बदले हुए थे
जैसे अपराध ,वो ,लोग ,शरीर ,दायरे आदि आदि
इन हर्फों के बीच
मै खुद को ढूंढ़ता रहा
उन लमहों को ढूंढ़ता रहा /जब तुम्हारी होठों की हँसी
आँखों से अनुनाद करती थी
टुकड़ों में बंटी / उन मुलाकातों को ढूंढ़ता रहा
जिनसे हमने अपनी रातों की नींद और सफ़र के सारे समान उधार लिए थे
पर न जाने क्यूँ
उस पहली मुलाकात में /पिघला हुआ/ तुम्हारे आँख के पानी का कतरा
इस मुलाकात तक तैर आया था
जिसे लांघने का साहस अब मुझ में न था
तुम भीग रही थी
एक बार फिर भीग रही थी
जैसे उन दिनों भीगती थी
जब वो एक अनजाना लड़का
जो तुम्हे दर्द भरे गीत सुनाया करता था
किसी बात पर नाराज हो जाता था
मेरी ख्वाहिशों की वो एक पुडिया भी ,भीग कर धुल चुकी थी
जिसे तुम इस बार तुम बेहद जतन से अपने पर्स में सहेज कर लायी थी
वक़्त की मुनादी में
मुलाकात ख़त्म हुई
मुमकिन है कि हम फिर न मिले
फिर से कुछ आधा आधा न बाँट पाए
फिर से दिनों की और घंटों की गिनती न हो
और फिर से रात की आखिरी ट्रेन की कोने वाली सीट पर बैठा कोई
अपनी आँखों को रुमाल से न ढके
अगर ऐसा हुआ तो भी
शहर,तुम ,लोग सब वहीँ रहेंगे
जहाँ थे
अपनी -अपनी दहलीज में |
मैंने इस मुलाकात में ये जाना है
दहलीजें तहजीब सिखाती है और प्यार बेपरवाह बना देता है
मै बेपरवाह का बेपरवाह रहा
तुम्हारी दहलीजों को /मै तुम्हारे होठों पर सजा देख रहा हूँ
कोई- कोई मुलाकात यूँ भी होती है
बुधवार, 8 दिसंबर 2010
मै लौटना चाहता हूँ
मै फिर से लौटना चाहता हूँ
उस एक पल की ओर
जहाँ पावों की धूल
ख़बरों में बदल जाती थी
वो एक कल मुझे दे सको तो दे दो
जहाँ मेरे छत की मुंडेर
गजलों की किताब थी और शहर एक नज्म
मै चाहता हूँ कि अपने झोले में रखे सारे आईने
पड़ोस की दूकान पर बेच आऊं
और झोले को पड़ोस वाली पहाड़ी पर बिखरे लाल पत्थरों से भर दूँ
मै अपने हाथों में लाल गुलाब की जगह
बेहया की टहनियां रखना चाहता हूँ
मै चाहता हूँ कि मेरी आँख या तो जमीन पर हो
या आसमान पर
मै चाहता हूँ उस एक जगह नंगे पाँव पहुँचजाऊं
जहाँ ना तो कोई इन्तजार था ,ना कोई उम्मीद
मै नहीं देखना चाहता हूँ उन चेहरों को
जो उस एक पल के इस पार थे
अपनी अपनी साजिशों के साथ
मुझे अपराधी बनाते हुए
अपनी अपनी मसीहाई का ढोल पीटते हुए
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