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रविवार, 14 अगस्त 2011

जो आजाद हैं उनके लिए

डगमगाता हुआ २४ तीलियों का भारी भरकम पहिया
चटक रंगों के साथ आजादी का उत्सव मनाता हैं
ये आजादी उनके लिए भी जो आजाद है, जो नहीं हैं उनके लिए भी ये आजादी है
ये आजादी सीमा विश्वास ,जतिन मरांडी और उन जैसे सैकड़ों के लिए भी है
जो आजाद नहीं है
ये आजादी कपिल सिब्बल , पी चिदम्बरम और मनीष तिवारी के लिए भी हैं
क्यूंकि वो आजाद हैं
ये आजादी अन्ना हजारे के लिए भी है
जिसका इस्तेमाल कर वो सारे देश की बत्तियां बुझा सकते हैं
ये आजादी धिनकिया के लिए भी है ये आजादी लालगढ़ के लिए भी
ये जंगल में जमीन के लिए लड़ रहे उन साथियों की भी आजादी है
वो चाहें तो आज करमा गा सकते हैं
ये आजादी लाल किले के प्राचीर से शोर मचाते उस आदमी के लिए भी है
जो नए भारत के सपनों की पोटली खोल हवा में उडाता है
उन सपनों में से कुछ को
कुर्सी पर बैठ चाय के साथ टीवी देख रहा दूसरा आजाद आदमी
उठाता है ,और चाय के साथ घुटक जाता है
ये आजादी हर उस एक आदमी के लिए भी है
जिसकी निगाहें आसमान पर नहीं है
जो भी अगल बगल या पीछे देख रहा है
वो कटघरे में खड़ा है |
ये आजादी विजयी विश्व तिरंगा गा रही बच्चों की उस भीड़ केलिए भी है
जो फिर से उसी २२३ नंबर गली से गुजरती है
और अपने सफ़ेद जूतों पर लगी गन्दगी को तकती है
ये आजादी गली के मोड़ पर खड़े उस राजेश मेहतर के छोटे बेटे की भी है
जो नंगा ही अपने टायर को भीड़ से आगे दौडाता है
ये आजादी दिलीप मंडल और शीबा असलम फहमी की भी है
वो चाहें तो फेसबुक पर फिर "आरक्षण " के बहाने
प्रकाश झा और आधे हिंदुस्तान को गरिया सकते हैं
ये आजादी कटते जंगलों की भी है बढते शहरों की भी
ये आजादी शेर ,सियार ,गीदड ,बांगड
बैर पियार की भी है
ये आजादी पूनम पांडे की भी है अरुंधती राय की भी
ये आजादी मेरी भी है तुम्हारी भी
मैं चाहूँ तो आज चादर ओढ़ कर सो सकता हूँ
या पत्नी से कह सकता हूँ
तुम आज आज कुछ नया बनाओ और हमें खिलाओ

गुरुवार, 4 अगस्त 2011

तुम नए पत्थर उठा लो श्वेताम्बरा !




सुनो श्वेताम्बरा
अब शाम होने को है
लपेट लिया है मैंने बादलों के चादर में
अपने हिस्से का आसमान और वो सब कुछ
जो सफ़र में हमारे साथ थे |
इनमे थोड़ी सी बरसात, चुटकी भर धुप
तुम्हारी पलकों जितनी छाँव और हाँ कुछ शब्द भी है
तुम कहो तो मैं
वो बची खुंची आंच भी ले लूँ
जो तुमने मेरे लिए रख छोड़ी थी |
मैं उन पत्थरों का भी बोझ भी सफ़र में उठा सकता हूँ
जिन्हें तुमने यूँ ही मेरी चौखट पर बिखेर दिया था
बस शर्त ये है कि तुम नए पत्थर उठा लो |
बोलों श्वेताम्बरा बोलो
उन ठावों के बारे में बोलो
जहाँ हमने दो पल रुक कर गहरी साँसें ली थी
और तुमने ढेर सारे फूल अपने दुपट्टे में इकठ्ठा कर लिए थे
तुम कहो तो वहां पड़े तुम्हारे क़दमों के निशान
और फूलों की शिनाख्त भी मैं इस चादर में रख लूँ |
मैं अपनी बाहों के घेरे में बंद
उस एक वक्त को भी सफ़र में ले जाना चाहता हूँ
जिनमे तुम्हारी बंद आँखों की नमी
दहलीजों की इबादत कर रही होती है |
मैं एक कोने में रखी
कुछ चीखें ,कुछ दुआएं ,कुछ चुप्पियाँ भी लिए जाता हूँ
कभी- कभी कुछ बेवजह की चीजें सफ़र में काम आती है |
सुनो श्वेताम्बरा
मेरे जाने की आहट को सुनो
किवाड़ों को बंद कर लो
मुसाफिरों के फिर से लौटकर आने का पता दरवाजों से नहीं
बंद आँखों में जागते उन सपनों से भी मिलता है
जिन्हें हम वक्त की तरह आँखों के आगे से गुजर जाने देते हैं
और वो सपने मैंने तुम्हारे लिए उसी एक जगह रख छोड़े हैं
जहाँ से मेरे - तुम्हारे रास्ते बदलते हैं

रविवार, 31 जुलाई 2011

हाँ तुम नहीं हो ,कहीं नहीं हो

अब तुम नहीं हो
तुम्हारे शब्द भी नहीं हैं ,तुम्हारी आहट भी नहीं
एक चुप्पी है
जो वो कुछ कह रही है जो तुम्हारी मौजूदगी कहती
तुम कह सकती थी इस बार बादल कुछ ज्यादा बरसे हैं
जंगल हरे रहेंगे
तुम बातें कर सकती थी उन गरम पहाड़ों के बारे में
जिन्हें तुमने अक्सर ख्वाबों में देखा है
और तुम्हे यकीं है कि ये पहाड़ बादलों की तरह तुम्हे भी बुलाते हैं
तुम सड़कों की सरगोशी और शहर की मदहोशी पर भी
कुछ न कुछ कहती
तुम्हे न जाने क्यूँ लगता है कि उनका ये हाल
हमारी मुलाकातों के बाद हुआ है |
तुम्हारी बतकही में मेरी कमीज के रंग और वो नज्में भी शामिल होती
जिनमे अक्सर मैं अनायास ही ख़ुद को ढूंढ़ता हूँ
बहुत मुमकिन है
उस एक वक्त मैं हमेशा की तरह आस्मां को तकता रहता
तुम्हारी निगाहें हमेशा की तरह जमीन पर गडी होती
तुम अपने छत से नजर आने वाली गंगा की बात जरुर कहती
और उसकी इस लापरवाही पर हंस पड़ती कि
उसने मेरे घर की देहरी से तुम्हारे शहर तक उस बोतल को पहुंचाने में एक सदी लगा दी
जिसमे मैंने तुम्हारे नाम का एक कागज़ रख छोड़ा था
तुम प्यार के उन तमाम किस्मों पर भी जरुर बातें करती
जिन्हें तुमने
दहलीजों को तहजीब सिखाने के दौरान जाना
और मैं नावाकिफ रहा
तुम उन सभी चीजों पर भी जरुर कुछ न कुछ कहती
जिन्हें आधा -आधा बांटते हुए हम ख़ुद बँट गए
तुम शायद उस दर्द को न कहती
जिन्हें हम तब जान पाते हैं
जब किसी के होने और किसी के न होने का अंतर
ख़त्म हो जाता है
यकीं मानो ये चुप्पी उस दर्द को सहती है
फिर कहती है
हाँ ,तुम नहीं हो ,कहीं नहीं हो

सोमवार, 25 जुलाई 2011

सुनो श्वेताम्बरा


सुनो श्वेताम्बरा
किस्से सुनाते सुनाते शहर सो गया है
बादलों के शामियाने में
बूंदों की बैचैनी बहुत कुछ ले जाती है
बहुत कुछ कह जाती है
कविता अकेले कोने में आधी भीगी - आधी सूखी
छाता लगाये खड़ी है
कलम सिरहाने / अपने स्मृति -भ्रंश पर
सफाई देते -देते थक चुकी है
इस वक्त छत, सिनेमा का पर्दा है
और आँखें प्रोजेक्टर
वो सब कुछ जो तुमने कहे और जो तुमने न कहे
एक साथ मुझसे रेजोनेंस कर रहे
मैं चाहता हूँ कि तुम इस सोये हुए शहर को जगाओ
आओ मुझे फिर से लोरियां सुनाओ
या कोई गीत गाओ
ये भी न हो सके तो शहर के लिए ही सही
लड़ो ,झगड़ो और लौट जाओ

शनिवार, 11 जून 2011

विज्ञान


आदमी का शीशे में तब्दील होना
कोई रासायनिक अभिक्रिया नहीं
एक सामान्य भौतिक क्रिया है
जूझते ,डरते ,सहमते या फिर प्यार करते हुए आदमी
की शिराओं में
घटता बढ़ता रक्तदाब
उसे अक्सर शीशा
तो कभी -कभी पत्थर बना जाता है
टूटने के लिए जुड़ते हुए लोग
इस शहर में अकेले नहीं हैं
इस भीड़ के लिए अब वक्त है
कि वो अंकगणित को भी जाने |

गुरुवार, 2 जून 2011

सुनो श्वेताम्बरा,अब मैं टूट रहा हूँ


सुनो श्वेताम्बरा
अब मैं टूट रहा हूँ
स्मृतियों के चादर के गुलाबी रंग पर
इस मौसम के पीले पत्ते भारी पड़े हैं
थके हारे जिस्म में उत्तर चुकी आँखें
अब हथेलियों को नहीं आसमान को तकती है
कविता की जुगाली के लिए
अंगुलियाँ शब्दों को चबाती है|

कहो श्वेताम्बरा क्यूँ कर
तुमने बेंच दिए थे घर के सारे आईने
और अपने कमरे में लगा लिए थे गुलमोहर के फूल?
तुम्हे नहीं मालूम
तुम्हारे भेजे गए बादल मेरे आँगन में बरसते हैं
ये सूरज मुझे कर्जदार समझता है
और जमीन किराया मांगती है

बोलों श्वेताम्बरा
क्यूँकर बदल रही है तुम्हारी रंगत ?
तुम क्यूँकर रंगतराश नहीं हुई ?
मैं भी तुम्हारे उन रंगों में रंगता
जिनका विज्ञान सिर्फ तुम्हे पता है
कभी ज्यादा सा लाल ,कभी कम सा हरा
सुनो
मैंने तुम्हारे उन रंगों को भी देखा है
जो तुमने मुझसे छुपाये है !
ये मेरी चोरी नहीं बेरंग सी कुंठाएं हैं
तुम इनके लिए मुझे सजा न दो
तुम्हारी सपनों का रंग /
तुम्हारी हँसी का रंग
तुम्हारी धडकनों का रंग
और हाँ ,तुम्हारी ग़जलों का रंग भी मैं देख सकता हूँ |

सुनो श्वेताम्बरा
अब मैं भी लौट रहा हूँ
सारे सिरे साथ लेकर
जानता हूँ-
इन सिरों को ढूढने की कोशिश तुम नहीं करोगे
मगर
लौटते हुए क़दमों की आहट को तो सुनो
दो तलवों भर की खाली जगह भी
कभी -कभी उम्र भर की खेती के काम आती है































शनिवार, 7 मई 2011

चुप्पियों के साथ



चुप्पियों के साथ
आस- पास तुम्हारी मौजूदगी
मुझे बेहद अच्छी लगती है
कुछ भी कह पाने की मुश्किलें जितनी बढती है
उतने ही करीब आ जाते हो तुम
अब तो तुम भी जान गए हो
ज्यों - ज्यों शब्द, सलीकों के साथ बीच में आते हैं
तुम्हे उतना ही खोता चला जाता हूँ मैं
खुद को उतना ही अकेला पाता हूँ मैं
मगर ये भी सच है कि
चुप्पियों के साथ
तुमसे थोड़ी सी भी दूरी मुझे बेहद कठिन लगती है
कितना मुश्किल होता है
दूरियों को चुपचाप सहना
समय के साथ-साथ न चाहते हुए भी बहना
उस वक्त बहुत मुमकिन है मैं उन बातों पर भी उदास होऊं
या फिर नाराज हो जाऊं
जिन बातों पर मै अक्सर मुस्कुराता हूँ
उस एक वक्त /तुम्हारी कविता भी बेवफाई की एक किस्म लगती है
तस्वीरों में मुस्कुराती तुम
पार्क स्ट्रीट की लोपा बनर्जी जैसी लगती हो
जिसके लिए प्यार और गोलगप्पों में कोई ख़ास अंतर नहीं है
सच कहूँ तो मैं उन सारी तस्वीरों पर स्याही उडेलना चाहता हूँ
और चाहता हूँ/ तुम्हे यूँ मुस्कुराता देखने वाले सारे लोग नरक में जाएँ

इन दूरियों के बीच तुम्हारी जिद्द
मुझे साजिश सी लगती है
तुम्हे याद है न? ये वही जिद्द है
जिनके लिए मैं न चाहते हुए भी तुम्हे ठहाके लगा कर दिखाता था
अब मै ठहाके नहीं लगाता
अपनी फटी हुई जेब को टटोलता हूँ
या फिर खुद को श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूँ
जानता हूँ इस बार
चुप्पियों के बीच
देह का द्वन्द भी नंगा हो रहा है
तुम इस बार मेरी नियत को आंक रहे हो
बार -बार जो मुझमे कभी नहीं था
उसको झाँक रहे हो
मगर मैं ,फिर भी दूरियों को सह रहा हूँ
क्यूंकि
चुप्पियों के साथ
आस- पास तुम्हारी मौजूदगी
मुझे बेहद अच्छी लगती है

मंगलवार, 1 मार्च 2011

मैं फिर भी साथ चलूँगा


कच्ची -पक्की ,टेढ़ी -मेढ़ी राहों पर जब चलते चलते थक जाओगे
थम जाओगे
पत्थर जैसे बन जाओगे
तब पाओगे
मुझे अकेला ,उन राहों पर
जिन राहों पर
तुमने मुझसे भरी दूपहरी छाँव छिनी थी
ठांव छिनी थी
मेरी आँखों के सपनों के रंग छीने थे
जीने के सब ढंग छीने थे
मैं अकेला उफ़ ये मेला
फिर भी तुम तक आ जाऊंगा
गीत पुराना फिर गाऊंगा
सावन बीते जाये पिहरवा
मन मेरा घबराये पिहरवा
तब तुम मुझसे ये न कहना
तुम कितना अच्छा हँसते हो
तुम कितना अच्छा गुनते हो
मै भी तुम्हरे साथ चलूंगी
हँसते गाते रोते लड़ते
साथ जियूंगी ,खूब जियूंगी
फिर एक दिन ऐसा आएगा
जब तुम सपनों से जागोगे
इन राहों पर चलते -चलते
उस मंजिल को याद करोगे
जिस मंजिल पर
तुमने कब से
एक कहानी
जिसमे राजा था और रानी
बुन रखी थी
उस मंजिल पर तुमको अपने
मीत मिलेंगे जीवन के संगीत मिलेंगे
साज मिलेंगे ,राग मिलेंगे ,जीने के अंदाज मिलेंगे
फिर उस मंजिल पर आकर
मुझको बेबस ,तनहा पाकर
तुम दरवाजा बंद करोगे
हर एक बात पर रंज करोगे
उम्मीदों पर तंज करोगे
सफ़र अकेला रेलम रेला
खुद में बंटकर रह जाऊंगा
गीत नहीं फिर गा पाउँगा
लेकिन फिर भी मैं कहता हूँ
मैं आऊंगा ,फिर आऊंगा
जब तुम पत्थर बन जाओगे
थक जाओगे
थम जाओगे

गुरुवार, 3 फ़रवरी 2011

तुम्हे प्यार करते हुए



तुम्हे प्यार करते हुए
मुझे अच्छी लगती है वो सभी औरतें
जिनसे मुझे प्यार हो सकता था
गुडिया हाट में घुमती /दुकानदारों से लडती
पर्स में छोटे बड़े नोटों की परतें लगाये
मोटी बिंदी वाली औरतें
वो औरतें/ जो खूबसूरती को प्यार करने की शर्त माने हुए
अपनी उम्र में/ उतनी ही स्थिर हैं
जितनी तुम मेरे प्यार में हो |

तुम्हे प्यार करते हुए
मुझे बेहद पसंद आती है
"कभी - कभी " की राखी गुलजार
जी में आता है
उसे बाहों में ले लूँ
और इस बार
वो मेरे लिए गाये
"कभी - कभी मेरे दिल में ख्याल आता है "

तुम्हे प्यार करते हुए
मुझे प्यार आता है /उन दुश्मनों पर
जो बदजात सिर्फ और सिर्फ
तुम्हे चाहने के लिए पैदा हुए हैं
मै चाहता हूँ कि /उनकी रात के किसी कोने में
मैं भी शामिल होऊं
उनके बालों पर हाँथ फेरूँ या फिर उन्हें अपने हिस्से की नींद दे जाऊं
मैं उन्हें अपनी हथेली के /उस हिस्से को भी चूमने को कह सकता हूँ
जिस पर तुम्हारे होठों के निशान /अब भी सुर्ख हैं

तुम्हे प्यार करते हुए
मुझे अच्छे नहीं लगते ग़ालिब
अपनी गलियों में मजमा लगाकर किस्मत का रोना रोते हुए
अगर कभी मिले तो मै
कह सकता हूँ उनसे
कभी हमारे दरवाजे आओ
गजलों का सफ़र वहाँ से शुरू होता है
जहाँ से तुम आसमान की और देखकर मुस्कुराती हो

तुम्हे प्यार करते हुए
तुम्हे प्यार न करना भी मुझे अच्छा लगता है
मै चाहता हूँ कि
वापस फिर से वहीँ पहुँच जाये
उस एक सुबह में
जहाँ/ एक कोने में भूत बन कर बैठी तुम
वाष्पीकरण के सिद्धांत को समझते -समझते
उस एक सफ़र की और निकल पड़ती हो
जहाँ तुम्हे
उड़े हुए/खाली और बेतरतीब से दिन मिलते हैं
फिर भी मेरे प्यार में पड़ी तुम
बार -बार बूँद बन पिघलती हो /मेरे सीने पर
और जहाँ से मै -
तुम्हे प्यार करते हुए
तुम्हे प्यार न करने की कोशिशें जारी रख सकता हूँ

रविवार, 2 जनवरी 2011

फासलों के बीच


मेरे और उसके बीच
एक नंबर का ही फासला था
जो उसने ड्राइंग रूम के कैलेंडर में लिख रखा था
ढेर सारी जरुरी-गैर जरुरी/ तारीखों के बीच
मगर वो फासला ख़त्म न हो पाया
जैसे कभी ख़त्म नहीं होती/ शहर की भीड़
या फिर पहाड़ के उस पार का सन्नाटा
जहाँ आजकल मै/ अकेले चौपाल लगाता हूँ

ये फिर न हुआ कि
मेरे फोन की घंटी बजे और मुझसे ज्यादा वो खुद ही खुद को सुनते हुए कहे
"काहें बिना बात नाराज होते हो ?
मै ऐसी ही हूँ"
ये भी न हुआ कि वो लिखे कोई कविता
और चौराहे पर यूँ सजा आये
कि मेरी निगाह उसे पढ़े
और मै ही दौड़कर उसे कसकर थाम लूँ|
उसने कोई ख़त भी न लिखे
वो ख़त /जिनमे उसका अंकगणितीय ज्ञान साफ़ नजर आता था
मै आधी तुम्हारी हूँ /और आधी सारी दुनिया की
मैं तुमसे/ तुम्हारी पूरी दुनिया के बारे में न पूछूंगी
तुम मेरी आधी दुनिया से दूर रहो|

कहते हैं कि
वो उस एक रात जो कि
शायद किसी साल की पहली तारीख थी
अंधेरों से मुंह बचाकर
उजालों की बस्ती में चली गयी
उस बस्ती में/ जहाँ उसके बचपन का वो साथी था
जिसने उसे गीत और घर दोनों दिए थे
"हमें तुमसे प्यार कितना "

उसके पास फासलों को बनाये रखने की जिद्द थी
मेरे पास अंधेरों के बावजूद
दूरियों को सहने की /एक आखिरी कोशिश
मुमकिन है/ उसकी जिद्द और मेरी कोशिशें कामयाब हो जाएँ
ये भी मुमकिन है/ वक्त साजिशन इन फासलों के बीच
किसी मोटी दीवार की चुनाई कर दे |
ये भी हो सकता है
वो मेरी कविताओं के पन्नों पर
एक बार फिर
सारी दवात उड़ेल डाले
और कहे /तुम मुझे गूंगे ही अच्छे लगते हो/
तुम्हारी कविताओं के शब्द जब मेरे इर्द गिर्द होते हैं/
तो मुझे घुटन होती है/
ये घुटन उस वक्त भी हुई थी जब
तुमने मुझे पहली बार पिघलाया था
और मै बिलख पड़ी थी,
तुम उन शब्दों को
उन दरवाजों के पीछे रख दो
जिन को मैंने न जाने क्यूँ /उस एक दिन अचानक खोल दिया था ?
और उनके पीछे तुम बैठे थे
कुरूप-
घुटनों में सर छुपाये हुए
और मै न चाहते हुए भी
तुमसे वाष्पीकरण की प्रक्रिया समझ रही थी |
इन फासलों के बीच जो भी हो
एक चीज तय है/
बहुत कुछ उस एक जगह ठहरा हुआ रहेगा/
जहाँ वो पहले था
तकते हुए/
हमें और तुम्हे/
कि हम आयेंगे ,उन फासलों को तोड़
और उन्हें फिर से साथ लेकर चलेंगे
मगर हम जानते हैं ,तुम आगे बढ़ चुके हो
उन ठहरी हुई चीजों के आगे/
फासलों को फासला बनाये रखने की आदत
तुमने अभी अभी सीखी है
और हाँ- ये आदमी को गैरतमंद बनाये रखने के लिए जरुरी है|