गुरुवार, 4 अगस्त 2011
तुम नए पत्थर उठा लो श्वेताम्बरा !
सुनो श्वेताम्बरा
अब शाम होने को है
लपेट लिया है मैंने बादलों के चादर में
अपने हिस्से का आसमान और वो सब कुछ
जो सफ़र में हमारे साथ थे |
इनमे थोड़ी सी बरसात, चुटकी भर धुप
तुम्हारी पलकों जितनी छाँव और हाँ कुछ शब्द भी है
तुम कहो तो मैं
वो बची खुंची आंच भी ले लूँ
जो तुमने मेरे लिए रख छोड़ी थी |
मैं उन पत्थरों का भी बोझ भी सफ़र में उठा सकता हूँ
जिन्हें तुमने यूँ ही मेरी चौखट पर बिखेर दिया था
बस शर्त ये है कि तुम नए पत्थर उठा लो |
बोलों श्वेताम्बरा बोलो
उन ठावों के बारे में बोलो
जहाँ हमने दो पल रुक कर गहरी साँसें ली थी
और तुमने ढेर सारे फूल अपने दुपट्टे में इकठ्ठा कर लिए थे
तुम कहो तो वहां पड़े तुम्हारे क़दमों के निशान
और फूलों की शिनाख्त भी मैं इस चादर में रख लूँ |
मैं अपनी बाहों के घेरे में बंद
उस एक वक्त को भी सफ़र में ले जाना चाहता हूँ
जिनमे तुम्हारी बंद आँखों की नमी
दहलीजों की इबादत कर रही होती है |
मैं एक कोने में रखी
कुछ चीखें ,कुछ दुआएं ,कुछ चुप्पियाँ भी लिए जाता हूँ
कभी- कभी कुछ बेवजह की चीजें सफ़र में काम आती है |
सुनो श्वेताम्बरा
मेरे जाने की आहट को सुनो
किवाड़ों को बंद कर लो
मुसाफिरों के फिर से लौटकर आने का पता दरवाजों से नहीं
बंद आँखों में जागते उन सपनों से भी मिलता है
जिन्हें हम वक्त की तरह आँखों के आगे से गुजर जाने देते हैं
और वो सपने मैंने तुम्हारे लिए उसी एक जगह रख छोड़े हैं
जहाँ से मेरे - तुम्हारे रास्ते बदलते हैं
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