सोमवार, 11 जनवरी 2010
धूप की बस्ती
तुम्हारे शहर में कोहरे का घना साया है ,
मेरे चेहरे पर भी धुंध उतर आई है,
चलो अब धूप की बस्ती को ढूंढने निकलें |
तुम्हारे पास लफ्जों की लिहाफ तो होगी
हमने भी एक उम्र से आंच बचा रखी है
चलो निकले,बस अब इस रास्ते से निकलें |
गली के मोड़ पर सूरज का रास्ता रोकें
अँधेरे का ठगा मानेगा कि न मानेगा
फिकर क्यूँ है कि मनाने में ज़माने निकलें |
तुम्हारे कन्धों पर भी यादों का कोई झोला हो
मेरे पैरों में भी रिश्तों के कसे मोज़े हों
हो गयी शाम अब निकले, उधर को निकलें|
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7 टिप्पणियां:
वाह जितना सुंदर चित्र है उतने ही सुंदर शब्द , बहुत खूब जी बहुत खूब
अजय कुमार झा
तुम्हारे कन्धों पर भी यादों का कोई झोला हो
मेरे पैरों में भी रिश्तों के कसे मोज़े हों
आवेश जी ! आपकी कविताओं की खासियत है की, बहुत ही मासूमियत से आप बहुत ही गहरी बात कह जाते हैं...और पढने वाला सोचता ही रह जाता है की ये सब आपको सूझता कैसे है...एक बार फिर बहुत ही खुबसूरत रचना
बहुत भावपूर्ण रचना है...दिल में उतरती है.
तुम्हारे कन्धों पर भी यादों का कोई झोला हो
मेरे पैरों में भी रिश्तों के कसे मोज़े हों
mozon ke kasav ko rishton se jodna...waah kya soch hai...very emotional
तुम्हारे कन्धों पर भी यादों का कोई झोला हो
मेरे पैरों में भी रिश्तों के कसे मोज़े हों
bahut khub
कसे हैं रिश्तों के मोज़े...कोई मज़बूरी इन्हें उतरने ना दे...यही दुआ!
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