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गुरुवार, 31 दिसंबर 2009

फिर भी नया साल है !

थालियाँ छनक रही ,कटोरियाँ भड़क रहीं
रोटी है न दाल है ,कमाल है ,कमाल है
फिर भी नया साल है |
भूख के सवाल पर ,हाल बेहाल पर
सुर्ख रंग लाल है ,लाल लाल लाल है
फिर भी नया साल है |
हर तरफ बवाल है,बवाल पर बवाल है
जिससे जूझता हुआ हर आदमी हलाल है
फिर भी नया साल है |
कुर्सियों की होड़ में ,जोड़ में तोड़ में
हर तरफ चाल है ,चाल भेडचाल है
फिर भी नया साल है |
ख़बरों के गाँव में ,गाँव गिरांव में
बिक रहा हर माल है ,खाने में बाल है
फिर भी नया साल है |
हर तरफ धुंआ धुंआ ,क्या जमीन क्या आसमा
हर शहर भोपाल है ,सीने पे नाल है
फिर भी नया साल है |
हुस्न के बाजार में ,इश्क की हैं बोलियाँ
कोई नहीं मलाल है ,जमाल ही जमाल है
फिर भी नया साल है |
हर तरफ जहर ,कहर ,धधक रहा है हर जिगर
ये आग बेमिसाल है ,मिसाल बेमिसाल है
फिर भी नया साल है |

रविवार, 27 दिसंबर 2009

पल्लू में चांदनी

कल रात देर तक /सितारों के ठहाके गूंजते रहे
चांदनी ,जो तुमने अपने पल्लू में बाँध रखी थी
मेरे पैरो पर सर रखी तुम /ये सच जानती थी
मगर मैं नावाफिक था !
मुझे पागल बना देने वाली तुम्हारी हंसी
तुम्हारे हाथों की आइसक्रीम की तरह पिघल रही थी
और मैं ठिठुर रहा था
संभालो सोनू ,गिरेगा !
सरसों के रंग की
सूती साड़ी में लिपटी तुम
मुझसे अजीब से सवाल कर रही थी
हमेशा बदलने वाली तुम बदस्तूर बरस रही थी

और मैं /तुम्हारे पल्लू में बंधी चांदनी को अंगुलियों में लपेट रहा था
कितना गुस्साते हो तुम ?
हमेशा तो मैं ही मनाती हूँ
तुम्हे मालूम ,कितना रोई मैं उस दिन ?
तुम कब बदलोगे ?
मुझे ये पाउडर की महक पसंद नहीं
तुम्हारे पसीने की महक गुम हो जाती है
जो भी हो कभी कभी जिंदगी ला देते
इस बार झूठ कहा था तुमने ,जिंदगी तो तुम लेकर आती हो हर बार
टुकडों में ही सही
लेकिन मैं उसे कभी आँखों से
तो कभी हाथों से ,तो कभी बातों से नीचे गिरा देता हूँ
मैं अब चुप हूँ ,खामोश ,और तुम हंस रही हो ,
खुला हुआ है पेट तुम्हारा
मैं कुछ झल्लाता कुछ मुस्कुराता हुआ अपनी आँखें नीचे कर ले रहा हूँ
कुछ कहूँ क्या ?
सब तो कह दिया ,सब कुछ
अबसे सिर्फ तुम कहना

इस बार तुम्हारी आँखें बंद हैं
तुमने करवट बदल ली है
मेरे हाँथ में रखी किताब का दूसरा पैराग्राफ
आज हमेशा की तरह दुबारा पढ़ा जा रहा है

चुप्पी फिर से टूटती है

बंद आँखों को झूठा साबित करते हुए तुम्हारे होंठ थर्राते हैं
तुम्हारे हाथों पर उस दिन बहुत सोने का मन था
क्यूँ था ?तुम भी न !
सच में प्यार करते हो न मुझसे ?
लडोगे तो नहीं न कभी ?
तुम और करीब आ गयी हो
मैंने छुपा लिया है अपने चेहरे को चांदनी से और तुमसे
दुबक सा गया हूँ तुम्हारे पेट में
जैसे कभी कभी हारने के बाद माँ के गोद में दुबकता था

ऐसा लगता है कोई आसमा सा ओढ़ लिया है
बंद आँखों से बादलों की तलाश में
मेरी हथेलियाँ तुम्हारे माथे से चिपक गयी हैं
उभर आई हैं तुम्हारे माथे की रेखाएं /मेरी अँगुलियों पर
पांवों की पायल गीत गा रही है
अब हम चुप हैं
सितारों की हंसी बदस्तूर जारी है
चादनी को बरसों बाद नींद आई है
उसे सोने दो

गुरुवार, 24 दिसंबर 2009

लव इन ऑरकुट




यहाँ बात तुम्हारे प्रेम में डूबे ई -मेल्स के पुलिन्दे की नहीं है
जो सुरक्षित हैं कंप्यूटर के साथ साथ
मेरी स्मृतियों में

न ही शहद जैसी तुम्हारी बातों और फुर्सत में तैयार किये गए
सपनो और समझौतों के लम्बी चौडी फेहरिस्त की है
जो अक्सर मेरे स्क्रैप बुक पर और कभी कभी सेलफोन पर मेरे हिस्से में आती हैं
उन कविताओं की भी नहीं
जो मुझे पढाने के लिए
यहाँ वहां
तुम अक्सर लिखा करते हो

तुम्हारे प्रेम का प्रतीक सिर्फ वो चुप्पी है
जो अक्सर मेरे ऑरकुट की विजिटर लिस्ट में नजर आ जाती है
जिसे थका हारा घर लौटने के बाद
इस बेजान सी मशीन की स्क्रीन पर मैं रोज देखता हूँ
मैं जानता हूँ कि तुमने भी उस वक़्त तक कुछ न खाया होता है
और मेरे इन्तजार में
अपने बाल खोलकर
फिर कोई कविता लिखती रहती हो
या फिर अपनी ही कोई तस्वीर मेरे लिए सजाती रहती हो |

रविवार, 20 दिसंबर 2009

कम लेंगे

कोई क्या देगा गम उनको
जो खुद गैरों का गम लेंगे
जहाँ सब भागते होंगे
वहीँ कुछ लोग थम लेंगे
जहाँ सब हाँथ सेकेंगे
वहीँ कुछ जल रहे होंगे
कोई क्या उनको कम देगा
जो अपने आप कम लेंगे

गुरुवार, 10 दिसंबर 2009

सुन रही हो तुम ?

बेतरतीब से दिन ,चिंदी चिंदी हो चुकी रातों के बीच
कोई वक़्त तो होगा?
जब तुम हमारे साथ होते होगे
रगड़ रहे होगे अपनी मुट्ठियों में मेरी अँगुलियों को
कुछ लिखा मिटाने को ,कुछ अलिखा बनाने को
बंद कर ली होंगी अपनी आँखों में मेरी आँखें तुमने
बिस्तर में -
खुद को छिपा लिया होगा
कोई वक़्त तो होगा जब तुम्हारे सामने की कुर्सी पर सर झुकाए
मैं जमीन को तक रहा हूँगा
दूसरी तरफ बैठी तुम
शायद एक बार फिर पढ़ रही होगी
किताब के किसी पढ़े हुए पन्ने को
या फिर करती होगी इन्तजार टेलीफोन के बजने का
कोई वक़्त तो होगा ?
जब तुमने अपने दिल के उस एक
दरवाजे की और देखा होगा
जिस पर तुमने यूँही भरी दुपहरी सांकल चढ़ा ली
और जहाँ से चुपचाप मैं लौट आया था}
वो पल तो आज भी वहीँ खडा होगा
तुम्हारी किसी कविता या फिर कंप्युटर की मेमोरी के किसी कोने में
चुपचाप|
कोई वक़्त तो होगा
जब तुमने सोचा होगा वापस आने को
अपनी कसम देकर मुझे बुलाने को
या फिर से अपना लिखा कुछ सुनाने को
सच कहूँ ....
अँधेरे का धुआं इस बार इधर से गुजरा है
.... उफ्फ्फ ये शोर
मुझे सोने नहीं देता
इस गहराती हुयी रात में
तुम्हारे पांवों की ठंडक मेरे सीने में उतर आई है
और मैं अतीत बन गया हूँ

शनिवार, 5 दिसंबर 2009

सोनू तिवारी से मुलाक़ात !

अगर आप खंड खंड टूट रहे हैं
या पोर- पोर जुड़ना चाहते हैं
तो सोनू तिवारी से मिलें
हम भी मिले थे कभी /किसी रात
हम जब मिले चुप्पी के साथ मिले
सारी अकुलाहट
नींद के पहियों के साथ डगमग डोलती
मेरी साँसों में सवाल बनकर उग आई थी
वही दूसरे छोर पर बैठी सोनू
इस मुलाक़ात से उपजे शून्य को
शिद्दत से जी रही थी |
अपनी हथेलियों को अपने घुटनों से दबाये
में फटी आंखों से देख रहा था
अपने इर्द -गिर्द मौजूद चेहरों को
जो तेजी से उसके चेहरों में तब्दील हो रहे थे |
शायद इस तेजी में नींद का अनुशासन
हम भी भूल चुके थे
अपने पैर की अँगुलियों में ढेर सारी नेलपॉलिश लगाये सोनू
कभी रास्तों पर बिक रही गुडेली पट्टियों की सोंधी महक में घुल रही थी
तो कभी गंगा किनारे बने /मन्दिर की घंटियों में खनक रही थी |
जिसे सिर्फ़ अपना घर समझने की गलती
देवताओं को अब तक है |
जब हम पहली बार मिले
साझे में हमारे पास फ़िक्र करने को बहुत कुछ था
पुरुष/स्त्री //बच्चे /नौकरी/देश-परदेश/ और प्यार आदि
जो साझे में नही था
उसके सूखे से सवाल थे |
जिनका मेरे पास वही जवाब था ,/जो हमारे न मिलने पर था
लेकिन वो जब मिली / मेरे सवालों को परत दर परत चिपकाते मिली
तुम आदत क्यूँ बनती जा रही हो सोनू ?
क्या मुझसे अधिक तुम्हे किसी ने कभी चाहा है ?

तुम उनको अधिक प्यार करती हो या मुझको

सारे सवालों को चिपकाने के बाद फ़िर वही जवाब
अब कुछ भी शेष नही मुझमे /,मैं निशेष !
हम जब मिले काफ़ी दूर साथ चले
हरे भरे पलों को अपनी बाहों में समेटे सोनू
उसमे अभी बहुत कुछ हरा था
उनमे और रंग भरने की मेरी कोशिशों को
वे अपने गाढे रंगों से नाकामयाब कर रही थी
वो अनवरत जीत रही थी /मैं बार बार हार रहा था
जब हम पहली बार मिले/ दूर भी हुए
लेकिन इस बार मेरे साथ चंद और साँसे थी

खिलखिलाकर हंसने /कवितायेँ लिखने

और रात में मुँह तक चादर ओढ़ने के बहाने थे

नुस्खे थे /ख़ुद को पत्थर बनाने के
जार-जार रोते हुए/ गीत गुनगुनाने के
और हाँ /मेरे जेब के इर्द गिर्द वो भी थी
अच्छा ही हुआ /हमने उसे जी भर के नही देखा

क्यूंकि

जब हम दूर हुए!
इस दौड़ते शहर से मेरे जिगर की देहरी तक

मैं सिर्फ़ और सिर्फ़

सोनू की परछाई इकठ्ठा कर रहा था
संबंधों का कोलाहल दूर खड़ा था
जब हम दूर हुए
उस वक्त मैंने हवा में घुसकर / उसके तलुवों को छुआ था
और नम अँगुलियों से अपनी आँखें मूँद ली थी
चौंकिए मत/ ये अभिवादन ही था
आराधना नही
सोनू जैसे लोगों से मिलने का यही सलीका है |

गुरुवार, 3 दिसंबर 2009

भोपाल मेरी जान !

मेरे भोपाल
बस एक बार मुझको कह दे तू
वो एक रात भला कब तक तुझ पर बीतेगी ?
कब तलक आँख के आंसू तुझे भिगोएँगे
कब तलक तख्तियों पर रंज कहे जायेंगे
कब तलक दिल्ली की बेदिली सहेगा तू
कब तलक शाम के धुंधलके तुझे डरायेंगे
सुन ए भोपाल , मेरी जान ,मेरे साथी सुन
क्या ये शहर भी कहानी तेरी दुहराएंगे ?
तुने सुनी थी न परवीन की बेटी की हंसी ?
तेरी गलियों में ही श्यामसखा खोया था
अब न परवीन की बेटी है न कोई श्यामसखा
बस एक धुंआ सा है जो नस नस में घुलता जाता है
तेरे आँगन से मेरे शहर की दीवारों तक
कुछ है जो हर रोज ढलता जाता है
आज फिर ३ दिसंबर है मेरे यार ,सुनता है तू ?
मेरी आँखों से क्यूँ बरबस ही बहता जाता है |
मै जानता हूँ कि तेरा दर्द बे इन्तेहाँ हैं अब
वो एक तू है कि हँस- हँस के सहा जाता है |
मेरे भोपाल बस एक बार मुझसे कह दे तू
वो एक रात भला कब तक तुझ पर बीतेगी ?



(श्यामसखा ()वर्ष और परवीन की बेटी ()की आज ही के दिन भोपाल गैस त्रासदी के दौरान असामयिक मौत हुई थी )

मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

तुमसे मिलने के बाद

तुमसे मिलना कई अनबुझे सवालों का जवाब था
तुमसे मिलने के बाद मैंने जाना
आँख के आंसू कैसे सपनो में बदलते हैं
कैसे संभव हो पाता है /चुप रहकर सब कुछ कहना
और कैसे /सब कुछ कह कर मौन हो जाता है आदमी |
तुमसे मिलने के बाद मैंने जाना
सड़कों की खामोशी ,और रातों की सरगोशी का मतलब
कैसे लिखी जाती है/ बिना कलम के कोई कविता |
मैंने ये भी जाना
क्यूँकर बार- बार नाम मिटाकर लिखता है कोई
कैसे भीग जाते हैं लोग/ अक्सर ख्यालों में |
तुम जानती हो जानेमन मेरी ?
जो कुछ भी मैंने जाना/ वो तुम नहीं जानती |
उस एक पल जब मैंने तुम्हारे होठों को चूमा था
वो मेरे अपने हिस्से का आखिरी पल था
उसके बाद मैंने जाना
कैसे बाँधी जा सकती है /इस समय को जंजीर
कैसे टूटता है कोई तिलिस्म,
नसों में बहते हुए रक्त के वेग से |
और कैसे/ एक और एक सिर्फ एक होता है |
तुमसे मिलने के बाद मैंने जाना
कैसे इंसान कभी- कभी मौसम सा हो जाता है
कभी गरजता है तो कभी बरसता है
मैंने ये भी जाना /क्यूँ सुबक पड़ता हूँ मैं
जब भी कोई हाँथ मेरे माथे पर होता है
मैंने जाना/ कैसे होता है?
किसी का पुण्य किसी का पाप
जो मैं नहीं जान पाया
उनमे तुम्हारी वो हथेलियाँ भी थी
जिनपर मेरा नाम लिखा था
वो चंद शब्द भी थे/ जो मेरे कानो में गर्म लोहों की तरह घुस जाते हैं
मैं नहीं जान पाया था क्यूँकर/ तुमने उस रोज अपना मुँह धोया था
कैसे नहीं पाट पाए थे हम ?
दो शब्दों के बीच की दूरी
कैसे कोई निगाह /मेरे साथ चलने से पहले ही थक चुकी थी
जो मैं जानना चाहता हूँ / वो तुम जानते हो !
काश ,तुम बता पाते /अपनी उस ठंडी छाँव का हिसाब जो तुमने
शायद खर्च कर दिए हैं
उन गीतों की कहानी जो तुमने
सख्ती से अपने बदन पर उकेर लिए हैं
और तुम ग़ज़ल बन गयी हो |
मुझे जानना है /कितनी अकेली हो गयी थी तुम
जब मैं उतरा था/ तुम्हारी गहराइयों में
तुम्हे बताना होगा अपने उन आंसुओं का हिसाब
जो हमारी मुलाक़ात से जने हैं
मैं ये भी जानकर रहूँगा
कब तक अँधेरे में टटोलते रहोगे तुम /मेरे शब्दों को
और कहाँ पर मौन हो जाओगे
साथ ही बताना/ कब तक तुम्हारे ख्यालों की सीमायें
मेरी ख्वाहिशों को रोकेंगी
और कहाँ पर ख़त्म होगा / मेरी नाकामियों का सिलसिला
मेरे मित्र,मेरे यार ,मेरी जान
सब कुछ जानने और न जानने का ये सिलसिला
न जाने कब तलक चलेगा
और न जाने कब तक
आंसुओं के सपनो में तब्दील होने की
रासायनिक अभिक्रिया चलती रहेगी

सोमवार, 23 नवंबर 2009

हम जब दुबारा मिले !

( वर्ष पूर्व डायरी में लिखी गई ये कविता मैंने बिसरा दी थी )




हम एक बार फिर उससे मिले
इन सर्दियों में
तमाम बारिश मै अपने शहर छोड़ आया था
बेहिसाब धुंधलके उसने अपने दरवाजे पर टांग रखे थे
धुंधलके को धोखा देकर अन्दर झाँक रही मेरी आँखें
जब तक पिघलती
उसने तपाक से पूछा
अपनी हथेलियाँ दिखाओ !
मुझे /तुम्हारी हथेलियाँ अच्छी लगती है
तुम्हारी आँखें भी और कुछ कवितायेँ भी
मुझे तुम्हारे ठहाके भी / बेहद पसंद हैं
मुझे वो आंसू भी अच्छे लगते हैं
जो तुम मेरे लिए बहाते हो |
मुझे नापसंद हैं/ तुम्हारी बातें
वो बातें /जिनमे सिर्फ तुम होते हो मै नहीं
तुम्हारे वो झूठ भी नापसंद है
जिन्हें मै हमेशा सच समझती हूँ
तुम्हारा गुस्सा भी /जो मुझसे कम है
मुझे /तुम्हारा पावडर लगाना भी नापसंद है
जिनसे तुम्हारे पसीने की महक मुझ तक नहीं पहुँचती
मुझे बहुत नापसंद है
तुम्हारा/ बाएं हाँथ से खाते हुए मुस्कुराना
मुझे रुलाकर खुद गुनगुनाना
बहुत देर तक समझाती रही वो
अच्छे लगने और प्यार करने के अंतर को
तुम्हे मालूम ? मुझे तुम्हारा चेहरा अजनबी लगता है
फिर भी तुम / मेरे साथ हो
जैसे किसी थके हुए सफ़र में
कन्धों का अपना पराया ख़त्म हो जाता है
सुनते हो ? मेरी तलाश अभी पूरी नहीं हुई
तुम वो वाले नहीं हो
जैसे उस तस्वीर में थे
मेरे जैसे / हाँ हाँ बिलकुल मेरे जैसे
मगर फिर भी तुम्हारे बिना जीना मुश्किल है
ग़लतफ़हमी में न रहो
ये प्यार नहीं /मेरे जीने की शर्त है
वैसी ही शर्त जैसी
बरसने के लिए बादल धरती से लगाता है
वैसी ही शर्त / जो मेरे होठों ने जुम्बिश के लिए
तुम्हारी हथेलियों से लगायी है
बिलकुल वैसी ही शर्त
जो तुम्हारे जाने के बाद /मेरी आँखों का
गली के उस आखिरी मोड़ से है
बस वही शर्त जो
हमारे मिलने और तुम्हारी कविता के बीच है
हम और वो फिर एक बार
कुछ -कुछ ऐसे ही मिले

शनिवार, 7 नवंबर 2009

मैं लौट आया हूँ फूलों के साथ

मैं लौट आया हूँ तुम्हारे पास
न थका हूँ न उदास
वैसे तो कोई भी नहीं बच सकता
मन के अवसाद और तन की थकान से
उम्र की ढलान हो या पहाड़ की ढलान
मैं कठिन यात्रा से वापस लौटा हूँ -सकुशल
तुम मेरी तरफ देखो
मैंने दोनों हाथों से एक गुच्छा फूल
उठा रखा है ,इन्हें भी देखो -
इसमें सात रंग के फूल
मस्ती से महक रहे हैं
अगर तुम उन्हें कठिन यात्रा का उपहार नहीं मान सकते तो इन्हें
मेरा प्यार भी मत मान लेना
मेरा प्रस्ताव
इन फूलों की पटकथा में अप्रकाशित छिपा हुआ है
यात्रा के अंत में जब फूलों को प्रताडित किया जाता है
दुस्वप्नों के भय से तब
मेरा ही मन जानता है|
पत्तियों का टूटना
पतझड़ की शिनाख्त की कार्यवाही में
पेड़ किस तरह मानता है ?
चिडिया का मन जानता है |
मेरे हाथों में महकता गुच्छा फूल
चोरी या बरजोरी का नहीं है
मैं इन्हें अभिनन्दन समारोह से नहीं लाया
मेरा नाम फूलों का दाम नहीं है दोस्त
माली का काम फूलों का दाम है
देखो इस उपहार को
प्यार के अधिकार से परखो
ओस के अंदाज से पंखुडियों को छुओ
बूँद जब फूलों पर ठहरती हैं तब
उसमे आँखें होती है ,,,,,,,,

शनिवार, 22 अगस्त 2009

मेरी कविता सो रही है

उसे ग़जलें लिखना पसंद है
या तस्वीरें खिंचाना
उसकी तस्वीर उसकी ग़जल जैसी है और उसकी ग़जल उसकी तस्वीर जैसी
जैसे मुझे भी बार बार उसके जैसा ही बन जाना पड़ता है
वो बात करते करते अचानक मौन हो सकती है
जैसे थक हार कर इस वक़्त
मेरी कविता सो रही है
या फिर उसकी चुप्पी अचानक ठहाकों का बोझ ओढ़ सकती है
जैसे मैं ओढ़ रहा हूँ अपने चेहरे पर चेहरों को
वो मेरे सामने जंगल बन जाती है
ढेर सारे पेड़ उग आते हैं /उसके भीतर
जहाँ मैं उसे खोजता हुआ अक्सर खो जाता हूँ
खुद को जिन्दा रखने की ये तरकीब उसने अभी अभी सीखी है
वो हर कोई जो मुझसे प्यार का दावा करता है
के लिए
उसका होना एक पहेली है
और उसका पहेली होना ढेर सारे सवाल
वो तुम्हारी जुड़वाँ कैसे है ,क्यूँ ?
क्यूँ खोते हो जंगल में ?
कब से जानते हो उसे ?
कैसे गिने तुमने कितने हैं पेड़ ?
वगैरह ,वगैरह
इस बार मानसून ने फिर धोखा दिया
जंगलों में सिर्फ पेड़ बचे ,पत्ते नहीं
मैं इस वक़्त एक बार फिर उन नंगे पेडों के नीचे
सोने की कोशिश कर रहा हूँ
मेरे पसीने की कुछ बूंदें
जमीन के सीने से चिपक गयी हैं
वो रात के दूसरे पहर में एक बार फिर कोई नयी ग़जल लिख रही है