अगर आप खंड खंड टूट रहे हैं
या पोर- पोर जुड़ना चाहते हैं
तो सोनू तिवारी से मिलें
हम भी मिले थे कभी /किसी रात
हम जब मिले चुप्पी के साथ मिले
सारी अकुलाहट
नींद के पहियों के साथ डगमग डोलती
मेरी साँसों में सवाल बनकर उग आई थी
वही दूसरे छोर पर बैठी सोनू
इस मुलाक़ात से उपजे शून्य को
शिद्दत से जी रही थी |
अपनी हथेलियों को अपने घुटनों से दबाये
में फटी आंखों से देख रहा था
अपने इर्द -गिर्द मौजूद चेहरों को
जो तेजी से उसके चेहरों में तब्दील हो रहे थे |
शायद इस तेजी में नींद का अनुशासन
हम भी भूल चुके थे
अपने पैर की अँगुलियों में ढेर सारी नेलपॉलिश लगाये सोनू
कभी रास्तों पर बिक रही गुडेली पट्टियों की सोंधी महक में घुल रही थी
तो कभी गंगा किनारे बने /मन्दिर की घंटियों में खनक रही थी |
जिसे सिर्फ़ अपना घर समझने की गलती
देवताओं को अब तक है |
जब हम पहली बार मिले
साझे में हमारे पास फ़िक्र करने को बहुत कुछ था
पुरुष/स्त्री //बच्चे /नौकरी/देश-परदेश/ और प्यार आदि
जो साझे में नही था
उसके सूखे से सवाल थे |
जिनका मेरे पास वही जवाब था ,/जो हमारे न मिलने पर था
लेकिन वो जब मिली / मेरे सवालों को परत दर परत चिपकाते मिली
तुम आदत क्यूँ बनती जा रही हो सोनू ?
क्या मुझसे अधिक तुम्हे किसी ने कभी चाहा है ?
तुम उनको अधिक प्यार करती हो या मुझको
सारे सवालों को चिपकाने के बाद फ़िर वही जवाब
अब कुछ भी शेष नही मुझमे /,मैं निशेष !
हम जब मिले काफ़ी दूर साथ चले
हरे भरे पलों को अपनी बाहों में समेटे सोनू
उसमे अभी बहुत कुछ हरा था
उनमे और रंग भरने की मेरी कोशिशों को
वे अपने गाढे रंगों से नाकामयाब कर रही थी
वो अनवरत जीत रही थी /मैं बार बार हार रहा था
जब हम पहली बार मिले/ दूर भी हुए
लेकिन इस बार मेरे साथ चंद और साँसे थी
खिलखिलाकर हंसने /कवितायेँ लिखने
और रात में मुँह तक चादर ओढ़ने के बहाने थे
नुस्खे थे /ख़ुद को पत्थर बनाने के
जार-जार रोते हुए/ गीत गुनगुनाने के
और हाँ /मेरे जेब के इर्द गिर्द वो भी थी
अच्छा ही हुआ /हमने उसे जी भर के नही देखा
क्यूंकि
जब हम दूर हुए!
इस दौड़ते शहर से मेरे जिगर की देहरी तक
मैं सिर्फ़ और सिर्फ़
सोनू की परछाई इकठ्ठा कर रहा था
संबंधों का कोलाहल दूर खड़ा था
जब हम दूर हुए
उस वक्त मैंने हवा में घुसकर / उसके तलुवों को छुआ था
और नम अँगुलियों से अपनी आँखें मूँद ली थी
चौंकिए मत/ ये अभिवादन ही था
आराधना नही
सोनू जैसे लोगों से मिलने का यही सलीका है |
8 टिप्पणियां:
हम जब मिले काफ़ी दूर साथ चले
हरे भरे पलों को अपनी बाहों में समेटे सोनू
उसमे अभी बहुत कुछ हरा था
उनमे और रंग भरने की मेरी कोशिशों को
वे अपने गाढे रंगों से नाकामयाब कर रही थी
bahut achchhaa laga padhkar
nice
awesh ji,
behad bhaawpurn kavita hai, yun lag raha jaise kavita ji rahi ho un lamhon ko jab milna, bichhadna aur sath safar hua. man ke dastaawez ka ek komal panna jismein bhaawnaaon ki adbhut abhivyakti...
उस वक्त मैंने हवा में घुसकर / उसके तलुवों को छुआ था
और नम अँगुलियों से अपनी आँखें मूँद ली थी
चौंकिए मत/ ये अभिवादन ही था
आराधना नही
सोनू जैसे लोगों से मिलने का यही सलीका है |
bahut badhai aur shubhkamnayen.
उस वक्त मैंने हवा में घुसकर / उसके तलुवों को छुआ था
और नम अँगुलियों से अपनी आँखें मूँद ली थी
चौंकिए मत/ ये अभिवादन ही था
आराधना नही
सोनू जैसे लोगों से मिलने का यही सलीका है |
बेशक मार्मिक पंक्ति!
aweshji, man ki chaya ko shabdoon se pakdna asan nahi, per koshish to raheni hi chahiye .aur aap to ye bahut saleeke se kar pate hai, kab kahan koi prerna ruberu hoti hai aap sadev uske liye tatper rehte hain.saath hi pooranta se uska upyog evm upbhog bhi ker pate hai .aapke samrthya ko aur shakti mile
bahut hi sundar aapne likha hai.
हिन्दीकुंज
har baar ki tarah is baar bhi sirf ek shabd hai aapke liye 'adbhutaas'... koi vyakti itna emotional ho sakta hai ye aapke kavita se pata chalta hai... bhavpurna abhivyakti...
yah manav haraday ki vah bhavna hai jisne kavita ka sharir le liya hai ! is kavita me bhikhchuon ka sayam or tathagat ki tapsya nazar aati hai ! is kavita ko padh kar mujhe "balswroop rahi" ki panktiya vo panktiya yaad aagayi jisme unhone kuch yun kaha thaa !
range hue bhdkile vigyapan par dhyan na de
sabhee kalpanaye jhuti hai,sabhee swapan batuni hai !
aapki is kavita ke liye main kuchh na likhu wahi achchha hain
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