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गुरुवार, 10 दिसंबर 2009

सुन रही हो तुम ?

बेतरतीब से दिन ,चिंदी चिंदी हो चुकी रातों के बीच
कोई वक़्त तो होगा?
जब तुम हमारे साथ होते होगे
रगड़ रहे होगे अपनी मुट्ठियों में मेरी अँगुलियों को
कुछ लिखा मिटाने को ,कुछ अलिखा बनाने को
बंद कर ली होंगी अपनी आँखों में मेरी आँखें तुमने
बिस्तर में -
खुद को छिपा लिया होगा
कोई वक़्त तो होगा जब तुम्हारे सामने की कुर्सी पर सर झुकाए
मैं जमीन को तक रहा हूँगा
दूसरी तरफ बैठी तुम
शायद एक बार फिर पढ़ रही होगी
किताब के किसी पढ़े हुए पन्ने को
या फिर करती होगी इन्तजार टेलीफोन के बजने का
कोई वक़्त तो होगा ?
जब तुमने अपने दिल के उस एक
दरवाजे की और देखा होगा
जिस पर तुमने यूँही भरी दुपहरी सांकल चढ़ा ली
और जहाँ से चुपचाप मैं लौट आया था}
वो पल तो आज भी वहीँ खडा होगा
तुम्हारी किसी कविता या फिर कंप्युटर की मेमोरी के किसी कोने में
चुपचाप|
कोई वक़्त तो होगा
जब तुमने सोचा होगा वापस आने को
अपनी कसम देकर मुझे बुलाने को
या फिर से अपना लिखा कुछ सुनाने को
सच कहूँ ....
अँधेरे का धुआं इस बार इधर से गुजरा है
.... उफ्फ्फ ये शोर
मुझे सोने नहीं देता
इस गहराती हुयी रात में
तुम्हारे पांवों की ठंडक मेरे सीने में उतर आई है
और मैं अतीत बन गया हूँ

6 टिप्‍पणियां:

MANVINDER BHIMBER ने कहा…

अँधेरे में टटोलती हूँ अपना आसपास
वह भेजता है अपनी धड़कन
दूर कहीं ब्रह्मांड से.

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना है।बधाई।

अनिल कान्त ने कहा…

आप एहसास को शब्दों में ढाल देते हैं

बेनामी ने कहा…

aabhasi mulakat ka behad paina chitran hai klpna aur bhav apas mai gunthe lagte hai.per na kahte hue sab kahne ki ichcha chipaye nahi chipti hai .bahut achcha hai kahete rahiye

खोरेन्द्र ने कहा…

bahut sundar

Sunita Panna ने कहा…
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